About Me

I write poems - I m going towards me, I write stories - किस्से ओमी भैय्या के, I write randomly - squander with me

Saturday, November 19, 2011

इश्क होने लगा है


अरमानो के सुने मकान में 
हर पल निगाहों के सामने 
दिल की तेज धडकनों में 
अब कोई रहने लगा है 
शायद ये खुमार है या फ़िर 
इश्क होने लगा है 

इत्तेफाक से कोई मिल जाये 
हर बार ऐसा होता तो नहीं 
ऐसे ही इत्तेफाक पे यकीन
ना जाने क्यूँ होने लगा है 
ये यकीन भी इत्तेफाक है या फ़िर
इश्क होने लगा है 

Tuesday, November 15, 2011

रंगरेज़ पिया

ओ रंगरेज़ पिया मुझे रंग दे 
तु अपने ही इश्क के रंग में

मंदिर मस्जिद मैं क्या जाऊ
बिकते वहाँ है कपड़े रंग बिरंगे 
बाज़ार बना कर रखा है सबने 
तेरा रंग आखिर कौन बताये
ओ रंगरेज़ पिया मुझे रंग दे 
तु अपने ही इश्क के रंग में

चमड़ी रंग दी गोरी काली
रख दिया कोरा मन मेरा 
इसको कितने रंग चढ़ाये 
फिर भी रहा ना कोई गहरा  
ओ रंगरेज़ पिया मुझे रंग दे 
तु अपने ही इश्क के रंग में

Sunday, July 31, 2011

तुम

एक अधुरी कविता हो तुम
मेरी कालजयी रचना हो तुम
एक अनसुलझा विचार हो तुम
कुछ लिख लेने की वजह हो तुम
होठो में छाई ख़ामोशी हो तुम
आँखों में तैरती ख्वाहिश हो तुम
कुछ पा लेने का हौसला हो तुम
कुछ खो देने का सुकुन हो तुम

जितना करीब आता हूँ
उतनी ही दुर हो तुम
जितना तुम्हे जानता हूँ
उतनी ही नयी सी हो तुम
कोई रिश्ता सा लगता है
फ़िर भी अंजान हो तुम
सोचता हूँ अक्सर यही कि
ज़िन्दगी ऐसी क्यों हो तुम?

Monday, July 11, 2011

मेरी कविताये यु न पढ़ा करो

तुम शब्द मेरे यु न सुना करो
हृदय की वेदना यु न जाना करो
कुछ सूखे कुछ गिले कागज है
तुम इनको यु न छुआ करो
कितनी बार कहा है तुमसे
मेरी कविताये यु न पढ़ा करो

रातकली तुम स्वप्न में मिली
स्वप्न की बाते न किया करो
भोर की किरणों से न बच पाया
उस सपने के बारे में न पूछा करो
कितनी बार कहा है तुमसे
मेरी कविताये यु न पढ़ा करो

न कोई छंद न कोई अलंकार
सजावट की यु न आशा करो
जो याद आये वो लिख पाए
सभी बातो की यु न बाते करो
कितनी बार कहा है तुमसे
मेरी कविताये यु न पढ़ा करो

Wednesday, June 29, 2011

ट्रेफिक जाम

गाड़ियों के पीछे है गाड़ियों का रेला
गाड़ियों के आगे खड़ा सिपाही अकेला
लाल बत्ती को सब कोसे है भैया
कार की सीट पे सिमट गयी दुनिया

होर्न पर शक्ति प्रदर्शन है करते
भूल गए सब्र से इंतेज़ार करना
थोड़ी सी जगह से चाहे निकलना
सब चाहे यही तो कैसे होगा जाना

कहने को पढ़े लिखे है डॉक्टर
कोई है इंजिनियर कोई है मैनेजर
समस्या में देखो इनका योगदान
अपनी तो कार हम है बड़े इन्सान

कुछ का काम अमीरों को कोसना
अपनी स्कूटर या ऑटो खुसेड़ना
छोटे से अहंकार के सब है मारे
नियमो को पालना सिद्धांतो के परे

अपने दो मिनट की जल्दी में
दुसरो के लुटवाए दिए घंटे
गलती मान के सुधर जाये
ऐसे तो नहीं कोई नेक बंदे

कह गए सिया से देखो राम
कलजुग माने ट्रेफिक जाम
कैसे सतयुग फिर से आएगा
बेचारा किसी सिग्नल पे फँस जायेगा

तेरा ख्याल

जब भी आया तेरा ख्याल
जैसे किसी ने लगा दिया गुलाल
और रंग बिखर गए चेहरे पर
जैसे होली का हो त्यौहार

फिर याद आये दोस्तों से झगड़े
तेरे लिए कॉलेज से भी भागे
न जाने कितना लेते रहे उधार
बस करके वादा कल दे देंगे यार

छोड़ा आये अपना शहर
तोड़ के रिश्ता वो पुराना
मेरे ऑफिस में नहीं कोई
टूटी फूटी टपरी का कोना
अक्सर याद आते है हाय
वो एक समोसा और एक चाय

Saturday, June 25, 2011

लोकतंत्र का नारा

ये कैसा है लोकतंत्र का नारा
आम आदमी है नेताओ का मारा

कोई थोपा जाता हाई कमान से
कोई बन जाता प्रधानमंत्री जन्म से
जिसको कहना है वो चुप बैठ रहता
जिसको समझ नही वो काव काव है करता
किसी को अपनी बेटी की चिंता
देश की बेटिया चाहे मरती रहे
कोई लगवाता अपनी मूर्ति यहाँ वहाँ
चाहे देश की मूर्ति खंडित होते रहे
केंद्र का करते है ये विरोध
सकारात्मक विपक्ष की भूमिका
राज्यों में सरकार इनकी
लेकिन फिर भी वही पिटारा
ये कैसा है लोकतंत्र का नारा
आम आदमी है नेताओ का मारा

पत्रकार एजेंट बने है और
उद्योगपति काटे जंगल
जंगल वाले चलाये गोली
हर परिवार का बेटा घायल
अपना देश अपना न रहा
गर्व था जिन शहरो पर
उन शहरो में गाव का आदमी
अब बाहरी बन है गया
वोटो ने बिगाड़ा है खेल सारा
ये कैसा है लोकतंत्र का नारा
आम आदमी है नेताओ का मारा

Tuesday, April 26, 2011

मेरे पाँव

गीली ठण्ड को महसुस करते है
पानी को छुना पाँव भूले नहीं
उंगलियों में रेत छुपा के लाते है
लहरों से चोरी करना भूले नहीं
सम्हलने की कोशिश करते है
चट्टानों पे खड़ा होना भूले नहीं
कंकडो से साफ़ जगह देख लेते है
पत्थरो की पहचान भूले नहीं
भागने की होड़ में चल नहीं पाते
कदमो के निशान छोड़ना भूले नहीं
भूले नहीं थे कुछ भी मेरे पाँव
बस इन जूतों में बंधे रहते थे

Photo courtesy of Hari

Saturday, March 12, 2011

सड़के

मेरे गाँव की दो सड़के
कहने को तो दोनों हमारी
लेकिन एक कच्ची एक पक्की
पहले दोनों कच्ची थी
दुःख दर्द की साथी थी
एक के गड्ढो पर दूसरी भी रोती थी
दोनों अभागी सी जीती थी
कच्ची से हुआ ये व्यव्हार सौतेला
क्युकि पक्की से दौरा मंत्री का था निकला

एक दिन किसी को गाँव के याद आयी
उसने मंत्री से आने की गुहार लगायी
था उसने सोचा गाँव के हालत दिखा कर
उनको सवाल पूछेगा विकास के नाम पर
मंत्री के आने से पहले
चमचो ने सड़क बनवाई
पैसे लिए दोनों के लेकिन
किस्मत एक ही की चमकाई
कर दिया कुछ इंतज़ाम ऐसा
गाँव लगने लगा शहर जैसा
जिस रास्ते आया था
उसी रास्ते लौटा काफीला
मंत्री को भा गया विकास ऐसा
जिसने शिकायत की थी उसे फटकारा
बोले इस गाँव को मॉडल बनायेंगे
और इसी तरह देश को प्रगति की राह पर चलाएंगे

अब पक्की को हो गया
गुमान नए रूप पर अपने
किसी अमीर महिला के तरह
वो देती कच्ची को ताने
भाग कर्म के देनी लगी प्रवचन
तो कभी कच्ची के चरित्र पर लांछन
कच्ची से और ना सुना गया
उसने भी अपना आप खो दिया
इतना ना इतराओ पक्की से बोली
दुःख दर्द के साथी से ठीक नहीं ऐसी ठिठोली
ये जो रूप में निखार आया है
बस ऊपर से पावडर ही लगाया है
अंदर से तुम भी कमजोर मेरी जितनी
धो कर जायेगा तुम्हे बारिश का पहला पानी
फ़िर अपने रूप के साथ ना जी पायोगी
समझती हु तुम्हे फ़िर कभी ना हंस पाओगी

वो शाम

राह तो तुमने देर तक देखी होगी
मुझसे लड़ने की जरुर ठानी होगी
लेकिन मेरे ना आ पाने के फ़िर भी
कुछ बहाने कुछ वजहे सोची होगी
खत्म ना हुआ होगा तेरा इंतेज़ार
वो शाम जो अब तक है उधार

किसी फूल की खुशबू ने तुमको
फ़िर से यादो में ठकेला होगा
एक ही सवाल के जवाब ने तुमको
फ़िर से कई सवालो में घेरा होगा
उसने बनाया होगा फ़िर से लाचार
वो शाम जो अब तक है उधार

उन राहों पर जो फ़िर से चल पाता
सही गलत की जो जिरह कर पाता
लम्हों का हिसाब जो मैं रख पाता
अपना हर क़र्ज़ जो अदा कर पाता
तो दे जाता तुम्हे ये अनुपम उपहार
वो शाम जो अब तक है उधार

Tuesday, March 01, 2011

शादी की बात

एक दिन सुबह माता ने फ़ोन घुमाया
और लड़की देखने का फरमान सुनाया
हम तो अभी उठे है नहाने का प्लान बनाया है
और उसके बाद हमे अभी ऑफिस भी जाना है
जो उनको समझाया तो बोली वहा भी चले जाना
उससे मिलो पहले जिससे तुम्हे है मिलवाना
जमाना अब नया है मिलने का तरीका भी नया
घर में चाय नहीं किसी कॉफ़ी शॉप में ही बुला लिया
मेनू को देखकर वो उसमे जो थेसिस करने लगी
हमने उन्हें याद दिलाया ये पहली मुलाक़ात है अपनी
अभी तुम पचास रुपये ही क्वालीफाई कर पाई हो
जो महंगा है खाना तो खर्च करो जो अपने पैसे लाई हो
हर मुलाक़ात के बाद तुम्हारा बजेट बढ़ाएंगे
MBA किया है कभी तो दिमाग लगायेंगे

खाने का नाम सुनकर वो बोली
अभी बना लेती हु चाय और मैग्गी
कुछ दिन उसपर काम चलाना होगा
कभी मेरी तो कभी तुम्हारी माँ को गेस्ट बनाना होगा
होता काम बहुत है शुक्रवार तक
मूवी हम शनिवार को ही जायेंगे
तुम्हारे कार्ड में थोड़ी सी शापिंग
और वीकेंड खाना बाहर ही खायेंगे

गृहस्थ जीवन का ऐसा सुन्दर सपना
हम दोनो ने जो मिल जुल के देखा
एक कॉफ़ी में ही बात जम गयी
और पिज्जा खाने की रकम बच गयी
आमंत्रण के नाम पर
फेसबुक में एक इवेंट बना दिया
और शादी की जगह
फेसबुक का स्टेटस बदल दिया
अब हम जीवन जन्मान्तर के साथी है
पांच दिन ऑफिस के और दो दिन अपने खातिर है

रेत का फूल

यहाँ रेत का समुन्दर है
लहरों में हवा का शोर है
सूरज उगलता है आग
कोई ना रहा अब मेरे साथ

कभी थी कलियों यहाँ खेलती
फूलो से सजी थी ये नगरी
आती गयी सबकी बारी
अब यहाँ मैं अकेला पहरी
खुशबु का लगता था मेला
रंगों का था जादू फैला

था रंगों पे गुमान सबको
मौसम की लगी नज़र हमको
ऐसा मौत का मंजर देखने
रेत में अब हु मैं अकेला
सिख लिया रेत में जीना
पानी की हर बूँद को पीना
हर साथी को सूखते देखा
रंगों को दफ़न होते देखा

लड़ता रहा मौसमो के साथ
हर बूँद कुछ और देर बचाता रहा
जिस्म में बची है अब थोड़ी सी जान
खड़ा हु लेके बाकियों का अरमान
बारिश के आने की है आस
फैला के जाऊंगा बीज जो है मेरे पास

वो कचरा बीनता है

टूटी बोतलों के ढक्कन में
फटे कपड़ो के साबुत जेबों में
छोटे मोटे लोहे के टुकडो में
वो ज़िन्दगी तलाशता है
वो कचरा बीनता है

कुछ आकार बना लेता है
जंग लगे तारो से
बेकार चीजों के ठेर में भी
वो खिलौना तलाशता है
वो कचरा बीनता है

लोगो की गालियों को कर
अनसुना अपने में खोया रहता है
दिखने में कम उमर का शायद
वो अपनी उमर तलाशता है
वो कचरा बीनता है

फेके गए टूटे हुए सामानों में
कुछ साबुत टुकड़े खोज ही लेता है
लोगो के इस्तेमाल हुई खुशियों में
अपनी भी ख़ुशी तलाशता है
वो कचरा बीनता है

Monday, January 31, 2011

भीगी सी याद

आज सुबह घर के बाहर
कुछ ओस के बुँदे है
शायद रात में कोई
भीगी सी याद गुजरी होगी
दीवारों से सट कर
हथेलियों को जोड़ कर
इधर उधर पानी फेकती
भीगी सी याद गुजरी होगी

हम भी भीगा करते थे
कागज़ की नाव के साथ
छोटी छोटी लहरों के संग
सब दौड़ लगाये करते थे
रेशमी दुप्पटे के आड़ में कभी
कभी किसी के इंतज़ार में
मिटटी पर पैरो के निशान बनाते
पैदल चलते भीगा करते थे
उन्ही जाने अनजाने मोड़ो की
भीगी सी याद गुजरी होगी

गर्माहट है मुठ्ठियों की
हवा में थोड़ी ठंडक है
सच के सूखे मौसम में
गीली ये ओस की बुँदे है
किसी का तोहफा देने को
भीगी सी याद गुजरी होगी

Saturday, January 29, 2011

ख़ामोशी

खामोश है हवा
बंद खिडकियों के दरम्या
खामोश है दीवारे
उनमे टंगी तस्वीरो की तरह
अजीब सी ख़ामोशी
आजकल रहती है मेरे घर में
ख़ामोशी के शोर में
खुद से हो नहीं पाती बाते

इस कोने से
घर के उस कोने तक
जाने कितनी
मीलो की है दुरिया
जब गया था
पिछली बार मैं वहा
सुना था उस
कोने का भी फलसफा

अपनी शक्ल भी
आईने में अजनबी लगती है
अब जिंदगी भी
बिता हुआ कल लगती है
खोल लु दरवाज़ा
अब मेरी हिम्मत नहीं होती
अजीब सी ख़ामोशी
अब मेरे लबो से नहीं जाती


Wednesday, January 05, 2011

गुमनाम शाम

कभी किसी गुमनाम शाम की बाहों में
युहीं याद आ जाता है वो पुराना वादा
फ़िर बीते हुए लम्हों की तस्वीर लिए
वो ताकता रहता है खाली आसमा

आखों के रंग बदलती थी जो बाते
आज अपने साथ ले आती है बुँदे
युहीं पलकों में तैरती रहती है
अब उनको जमीन पे नहीं गिराता

किसी के आने की उम्मीद नहीं रखता
ना किसी इत्तेफाक पर यकीन करता
युहीं इस तरह वक़्त है बीत जाता
फ़िर भी वो उस जगह से नहीं उठता

Tuesday, January 04, 2011

कवि की व्यथा

एक मृगनयनी
कवि महाराज से बोली
ये आप क्या करते हो
इधर उधर की बाते कहते हो
कभी बाते गंभीर होती है
अक्सर बिना सर पैर की होती है
क्यों नहीं कुछ अच्छा लिखते
कुछ प्रेम व्रेम की बाते करते
जो कभी किया नहीं प्यार
तुमे लगे नहीं लिख पाओगे श्रृगांर
तो एक कम करो आसान
चलाओ कोई हास्य का बाण

कवि ने सोचा
लिखे कोई प्रेम कविता
करे युवती के रूप का बखान
फिर आया उसके दबंग भाइयो का ध्या
वैसे भी नारी वर्णन में कितने कवि बर्बाद हुए
परेशान थे अब कैसे अपनी नैया पार लगे

बालिके को इम्प्रेस करने कि जो थी ठानी
उन्होंने हास्य की पुरी हिस्ट्री छान मारी
किसी असहाय का मजाक उड़ाना
होगा हास्य निम्न कोटि का
लेकिन औकात भी कहा थी
कि लिखे कुछ उच्च कोटि का
राजनीति से प्रेरित व्यंग्य के दिन लद गए
क्युंकि आम लोग उनसे ज्यादा कमीने हो गये
आजकल हँसी के माने बदल गए
टीवी के कुछ शो हँसाने को रह गए

लिख दी बाते दो चार
कुछ आचार कुछ विचार
खुद समझ नहीं पाये क्या लिखा है
हास्य के नाम पर क्या गंध छोड़ा है
विनाशकाले विपरीत बुद्धि से बच गए
और सही समय पर अपने इरादों से हट गए

किसी को बताया नहीं
कि कभी कुछ ऐसा भी था लिखा
मृगनयनी से बोले
लिखेंगे आपके लिए ये वादा रहा