About Me

I write poems - I m going towards me, I write stories - किस्से ओमी भैय्या के, I write randomly - squander with me

Saturday, July 21, 2012

कसम

सागर को नापने से 
रोकने की कोशिश की हैं 
पानी में दौड़ने वालो को
बांधने की कोशिश की हैं 
साजिश ये बादलो और 
लहरों ने मिल के की हैं
लेकिन हमने भी तैरते 
रहने की कसम ली हैं 

कश्ती को हिलाने लहरे
और ऊँची आ भी जाए 
काले बादलो से बिजली 
की ललकार आ भी जाये 
हिम्मत को हराने कोई 
बड़ा तूफ़ान आ भी जाये 
लेकिन हमने भी लड़ते 
रहने की कसम ली हैं
 
Photocourtesy Grishma Shah

Thursday, July 19, 2012

चाँद के साथ

तेरी जुल्फे तेरी मुस्कराहट तेरे बहाने
तेरी अदाएं तेरे नखरे तेरे फ़साने
आज करते रहे तेरी बात चाँद के साथ
 
कोई पुरानी ग़ज़ल याद में तेरी
कोई अपनी ही लिखी आधी अधूरी
आज लिखते रहे नज़्म चाँद के साथ
 
तेरी खिड़की से नज़र आते होंगे
सारी रात पहचानते रहे ऐसे तारे  
आज जागते रहे हम चाँद के साथ
 
रातरानी की खुशबू में जैसे खोये
चांदनी रौशनी में डुबोये हुए
आज भींगते रहे हम चाँद के साथ
 
उड़ते बादलो में देखी निशानी  तेरी
खोजते रहे कहीं लब कहीं आँखे तेरी  
आज बनाते रहे तस्वीर चाँद के साथ

Saturday, July 14, 2012

शब्दों का जाल

ख़ुशी या गम सब तेरे ही
मैं कोई अहसास न जानु  
जानी अनजानी मंजिले तेरी ही  
मैं तो आवांरा रास्तो पर भटकू  
कहता फिरता इधर उधर की
मैं खुद  अपने बारे में न जानु 
अर्थ जो निकल पाए वो तेरे ही 
मैं तो बस शब्दों का जाल बिछाऊ  
 
होली में शब्दों के रंग उड़ा दू 
राखी में शब्दों के धागे बांधु  
दीपक दिवाली में शब्दों के जलाऊ 
मिठाई की जगह मीठी बात बताऊ 
त्योहारों के मज़े सारे तेरे ही
मैं तो बस तुझको याद दिलाऊ 
जितनी यादें जहन में आये वो तेरी ही
मैं तो बस शब्दों का जाल बिछाऊ
 
बनते बिगड़ते रिश्ते तेरे ही
मैं तो बस रिश्तो की बात बताऊ 
रूठने मनाने के बहाने तेरे ही
मैं तो बस पुराने पन्ने पलटाऊ  
मेरा एक ही रिश्ता शब्दों संग यारी  
बस मैं अपना रिश्ता इनसे निभाऊ
शब्द जो रिश्ते बचा पाए वो तेरे ही
मैं तो बस शब्दों का जाल बिछाऊ 

Monday, July 09, 2012

तुने देखा होता

ना थी हमारी किस्मत, तो ये किस्मत ही सही
जाना ही था एक दिन, तो तेरा जाना ही सही
थी यहाँ तक बस तो, छोटी ये कहानी ही सही
पुरे ना हो सके कुछ, झूटे कुछ टूटे वादे ही सही
लेकिन कम से कम, एक अहसान तो किया होता   
जाते वक़्त एक बार, मुड़ के तो तुने देखा होता
हम तेरी मज़बूरी का, कोई अंजान बहाना बना लेते  
की होगी तुने पूरी कोशिश, सोच के जिन्दगी बिता देते 

वियोग रस

कवि तुम बड़े हो निष्ठुर प्राणी
विरहन ही तुमको नज़र है आती
वियोग का रस ही पीते हो
और बताते उसको दुखियारी
 
क्या मैं स्त्री ये न जानु
कैसे विरह का खेल रचा
एक पुरुष ने दुःख दिया तो
दूजे ने उसपे गीत लिखा
 
जब किसी पुरुष से जीवन  
का दर्द ना सहा गया
मैखाने में शाम रात हुई
तब उसपे कुछ न लिखा गया
 
मंदिर मस्जिद से बेहतर बोला
पावन कर दी मधुशाला 
दहलीज के जो भीतर बैठी रही
उसके दिल का राज़ ही खोला
 
खोजो शब्दों में सार्थकता
फिर तुमने क्यों ये भेद रचा
जिसकी याद में रोते हो
क्यूँ कहते उसको बेवफा