About Me

I write poems - I m going towards me, I write stories - किस्से ओमी भैय्या के, I write randomly - squander with me

Sunday, March 25, 2007

moksha

मैं ही ब्रम्हा विष्णु हू मैं हू शिवा
मेरे ही कंठो मे समाया हलाहल सारा

विस्मित करती सबको जो यह है धरा
गगन का बैठाया जाल उसपे सारा
ललचाने को तुझे मैं सितारे चमकता
चाँद और सूरज को देता मैं ही उजाला

रंग सरे मैंने रंगे फूलों को महकाया
वायु को बहने के लिए दिशा ज्ञान समझाया
नदियों को मोडा है ऐसे की जंगलो को सींचा
गहरी खाई ऊँचे पहाडो का मैं ही रचियिता

मनुष्य का मन है मेरा ही आविष्कार
मोहमाया मे देखता है तू सारा संसार
खोल नयन देख कौन खड़ा है उसके पार
तू है मेरा ही अंश मैं तेरा साकार

मैं ही ब्रम्हा विष्णु ह मैं ह शिवा
सारा जग मुझे है और मैं तुझमे समाया

ranbhoomi

देखो यह रणभूमि है

हर यहा मृत्यु शैया
जीत रात भर का आशीर्वाद है
सुबह लाती ललकार शत्रु की
साँझ सूचना घायलों की
मरने वालो कि पहचान कहा है
साबुत मिले वह शव कहा है
यहा लहू कि कहा कमी है
देखो यह रणभूमि है

गर्जन करते आगे बड़ते है
अपनी वीरता का दंभ भरते है
देखे महावीर जो कल लड़ते थे
आज खुले नयनो से सोये है
महत्वाकांक्षा के बलि हुए वह
बचे हुए फिर भी चलते है
जितने की ही सबको पड़ी है
देखो यह रणभूमि है

कुछ के पास अनुभव बहुत है
कुछ सीधे आँगन से आए है
मानव के सारे समंध भूल के
अपनी आंखों मे लहू लाये है
टपके पसीना शरीर से बाद मे
पहले इनका लहू बहता है
तलवार यहा अब किसकी सुखी है
देखो यह रणभूमि है