आज सुबह घर के बाहर
कुछ ओस के बुँदे है
शायद रात में कोई
भीगी सी याद गुजरी होगी
दीवारों से सट कर
हथेलियों को जोड़ कर
इधर उधर पानी फेकती
भीगी सी याद गुजरी होगी
हम भी भीगा करते थे
कागज़ की नाव के साथ
छोटी छोटी लहरों के संग
सब दौड़ लगाये करते थे
रेशमी दुप्पटे के आड़ में कभी
कभी किसी के इंतज़ार में
मिटटी पर पैरो के निशान बनाते
पैदल चलते भीगा करते थे
उन्ही जाने अनजाने मोड़ो की
भीगी सी याद गुजरी होगी
गर्माहट है मुठ्ठियों की
हवा में थोड़ी ठंडक है
सच के सूखे मौसम में
गीली ये ओस की बुँदे है
किसी का तोहफा देने को
भीगी सी याद गुजरी होगी
2 comments:
आपकी कवितायेँ बेहतरीन हैं.
AM FOLLOWING YOU.
Thanks Varshiji ..I hope in future also I will meet your expectations
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