कवि तुम बड़े हो निष्ठुर प्राणी
विरहन ही तुमको नज़र है आती
वियोग का रस ही पीते हो
और बताते उसको दुखियारी
क्या मैं स्त्री ये न जानु
कैसे विरह का खेल रचा
एक पुरुष ने दुःख दिया तो
दूजे ने उसपे गीत लिखा
जब किसी पुरुष से जीवन
का दर्द ना सहा गया
मैखाने में शाम रात हुई
तब उसपे कुछ न लिखा गया
मंदिर मस्जिद से बेहतर बोला
पावन कर दी मधुशाला
दहलीज के जो भीतर बैठी रही
उसके दिल का राज़ ही खोला
खोजो शब्दों में सार्थकता
फिर तुमने क्यों ये भेद रचा
जिसकी याद में रोते हो
क्यूँ कहते उसको बेवफा
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