कभी गुड़ियों का घर भी न संभल पाता था
अब घर की बातो में सुबह से शाम हो जाये
बची हुई आखिरी मिठाई के लिए जो लड़ता था
अब उसने मीठा खाया कि नहीं ये ख्याल सताए
कभी पिताजी के बगल की कुर्सी पर जताते थे हिस्सा
तो कभी किसे ज्यादा प्यार करती हैं माँ इसका झगड़ा
कभी संग बैठने पर भी जिनको आता था गुस्सा
अब मिलने के लिए किसी त्यौहार की आस लगाये
लड़ते लड़ते ना जाने कब वो भाई बहन बड़े हो गये
उनके गुड़िया, गाड़िया और बंदूके पुराने हो गए
छोड़ बचपन का घर वो दोनों दूर चले गए
लेकिन फिर भी राखी के धागे बंधे रह गए
4 comments:
बहुत ही सही फरमाया OPji आपने. हर एक रिश्ते की अपनी ही न्यारी छवि है, जो कभी नही मिटती.ज़िंदगी तो ऐसी ही कयि छवियो की रंगाई है.आपने तो मेरे दिल की बात कह डाली इस कविता में.
very well said OP Ji...
touching post :)
धन्यवाद रेशमा जी और श्वेता जी !
जीवन के अनुभव एवं यादों को बटोरना अक्सर मन को छू लेता हैं :)
its really fantastic and brings u at the point of life which is wrapped in remembrance only!
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