टेबल पर बिखरी किताबो से
जब मन उब जाता था
मेरे खिड़की पर कोई
एक संगीत युही सुनाता था
फुदक कर नन्हे कदमो से
वो जैसे दुरिया नापती थी
या नृत्य की कोई नयी विधा
जो मुझको सिखाना चाहती थी
कभी सूखे तिनके
अपनी चोंच में ले आती थी
जैसे अपने बन रहे
घर की बाते मुझे बताती थी
एक गौरिया कभी मेरी खिड़की पर आती थी
अब खिड़की के सामने
एक ईमारत ऊँची है
खोजा उसे बहुत पर
वो बस यादो में बची है
एक मित्र ने बताया
उसके घर अब भी आती है
मुझसे जैसे रूठ गयी पर
कुछ लोगो से अभी भी दोस्ती है
मेरी बस यही विनती है
बनाओ अपने घर चाहे जितने
यु उजाडो ना खोंसले उनके
कही किसी दिन दुनिया ना कहे
एक गौरिया कभी मेरी खिड़की पर आती थी
2 comments:
very well written... you took me back to my childhood days when I used to see so many sparrows in our garden....
गौरिया को अब आशियाना नसीब नहीं -जंगले तो अब कंक्रीट के हैं.
Post a Comment