About Me

I write poems - I m going towards me, I write stories - किस्से ओमी भैय्या के, I write randomly - squander with me

Monday, October 25, 2010

दीवाने

भीड़ भरे बाजारों से
जो गलिया गुजरती है
आवाजों के झुरमुट में 
पहचानी कोई हंसी नहीं 

हर एक लम्हे में 
एक उम्र गुजरती है
और इंतज़ार में उनके
शाम ढलती ही नहीं

कुछ देर में बादलो की भी 
बस तस्वीर बदलती है 
रंग बदलते आसमा में 
एक रंग है जो आता नहीं 

यु सूरज को डुबाने से
अँधेरा तो हो जाता नहीं
रौशनी चाँद की बहुत है  
चिलमन है कि हटते नहीं

एक दीदार की तमन्ना में
रात युही गुजरती है
फिर भी सकरी गलियों में 
इन दीवानों की कमी नहीं

Wednesday, October 13, 2010

माटी

हल सुनाऊ दिन भर का 
बैठे थे सब साथ में साथी 
खेल रचे थे भाति भाति 
साँझ भई तो माटी के पुतले 
मिल गए फिरसे माटी में

सब लगते थे जैसे सच्चे
प्रेम के थे जो संबंध बांधे 
निभाई दुश्मनी भी कुछ से 
साँझ भई तो घर को लौटे 
रह गए रिश्ते माटी में

कुछ जोड़ा और कुछ घटाया
घर भी बनाये सपनो के
अपने नाम से नारे लगाये
मिटा दिए नाम किसी के 
साँझ भई तो कोई ना रहे
खो गए नाम माटी में

Monday, October 11, 2010

अग्निपथ

शंखनाद का अनुनाद है
चुनौतीयो के संवाद है
ना शस्त्र है ना अस्त्र है
ये ऐसा एक कुरुक्षेत्र है
जहाँ हर प्रहार सख्त है
ये जीवन एक अग्निपथ है

झुलसी हुई पलके है
नयनो को छुती लपटे है
अश्रु की धारा अनवरत है
फिर भी बढते वो स्वपन है
आहुति में गिरता ये रक्त है
ये जीवन एक अग्निपथ है

भाग्य बस एक खेल हो
कर्मो का ऐसा मेल हो
सबसे महान वो मनुष्य है
जिसने पाया अपना उद्देश्य है
आगे बढते रहना ही गत है
ये जीवन एक अग्निपथ है

Saturday, October 09, 2010

गौरिया

टेबल पर बिखरी किताबो से
जब मन उब जाता था
मेरे खिड़की पर कोई
एक संगीत युही सुनाता था

फुदक कर नन्हे कदमो से
वो जैसे दुरिया नापती थी
या नृत्य की कोई नयी विधा
जो मुझको सिखाना चाहती थी

कभी सूखे तिनके
अपनी चोंच में ले आती थी
जैसे अपने बन रहे
घर की बाते मुझे बताती थी
एक गौरिया कभी मेरी खिड़की पर आती थी

अब खिड़की के सामने
एक ईमारत ऊँची है
खोजा उसे बहुत पर
वो बस यादो में बची है

एक मित्र ने बताया
उसके घर अब भी आती है
मुझसे जैसे रूठ गयी पर
कुछ लोगो से अभी भी दोस्ती है

मेरी बस यही विनती है
बनाओ अपने घर चाहे जितने
यु उजाडो ना खोंसले उनके
कही किसी दिन दुनिया ना कहे
एक गौरिया कभी मेरी खिड़की पर आती थी

लफंगा सा एक परिंदा

मैं लफंगा सा एक परिंदा
भरने लगा हु उड़ाने ऐसी
छोटा लगने लगा आसमा
और खोजना पड़ा नया जहा

जी रहा हर ख्वाब ऐसे
कि ज़िन्दगी लगने लगी छोटी
हर लम्हे में ख़ुशी इतनी
कि वक़्त की रफ़्तार भी धीमी

दोस्ती दुश्मनी की किसको पड़ी
अब खुदसे होगई मोहब्बत इतनी
मेरा हवाओ से जुड़ गया रिश्ता
उड़ता रहा मैं लफंगा सा एक परिंदा