बीज नहीं सपना था बोया
तब दरख्त तुझसा पाया
तपते सूरज की अग्नि में
मेरे घर में कोमल छाया
देखा मैंने उगते हर एक पत्ता
जैसे बढता है बच्चा अपना
आज मेरे झोपड़े के आँगन में
कितने परिंदों का आशियाना
है तेरी उम्र जाने कितनी
मेरी तो अब होने आयी
मेरे चिता को आग दे कोई
तु ही अपनी लकड़ी जलाना
उपजंगे पौधे तेरे बीजो से
परिंदों तुम उन्हें दूर लेजाना
रखना धरा को हरा भरा
तु ही मेरा वंश चलाना
7 comments:
शानदार पोस्ट
सुन्दर अभिव्यक्ति...बधाई ...
ek november bhai... Maza aa gaya.
Wapis main bachpan me paunch gaya.
sahi hai bhai .. kafi gahrai hai is kavita mein. Keep it up buddy !!!
बेहतरीन!!
Good one, good mix of emotion and flow.
you can add presence of u r frnd at every step of u r life and at end also. It can make it more touchy.
beautiful :)
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