सोचने वाला मन
अब उलझनों में उलझा रहता है
सुनने वाला मन
शोर से दूर शांत कोना खोजता हैं
लिखने वाला मन
रोजमर्रा की जिंदगी में खोया रहता हैं
कभी ख्वाब लिखे थे
अब सच को जीते हैं
न जाने क्या हुआ हैं
मैं लिखता नहीं हूँ
और लिखने को कुछ सूझता नहीं हैं
कुछ यादें हैं
अब वो साफ़ नहीं धुधली सी हैं
कुछ बाते हैं
अब वो भी बेमानी लगती हैं
सब कुछ बिखरा हैं
बेतरतीब रखी जैसे किताबे हैं
न जाने क्या हुआ हैं
मैं लिखता नहीं हूँ
और लिखने को कुछ सूझता नहीं हैं
कलम रुकी हैं
या फिर मेरा कागज उड़ा हैं
शब्द रूठे हैं
या फिर कोई अहसास गुम हुआ हैं
न जाने क्या हुआ हैं
मैं लिखता नहीं हूँ
मैं लिखता नहीं हूँ
और लिखने को कुछ सूझता नहीं हैं
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