कभी गुड़ियों का घर भी न संभल पाता था
अब घर की बातो में सुबह से शाम हो जाये
बची हुई आखिरी मिठाई के लिए जो लड़ता था
अब उसने मीठा खाया कि नहीं ये ख्याल सताए
कभी पिताजी के बगल की कुर्सी पर जताते थे हिस्सा
तो कभी किसे ज्यादा प्यार करती हैं माँ इसका झगड़ा
कभी संग बैठने पर भी जिनको आता था गुस्सा
अब मिलने के लिए किसी त्यौहार की आस लगाये
लड़ते लड़ते ना जाने कब वो भाई बहन बड़े हो गये
उनके गुड़िया, गाड़िया और बंदूके पुराने हो गए
छोड़ बचपन का घर वो दोनों दूर चले गए
लेकिन फिर भी राखी के धागे बंधे रह गए