अनलिखे ख़त के है कभी कागज़ कोरे
कभी किताब में दबे से भूले ये बिसरे
रिश्ते आखिर है ये कैसे सिलसिले
हम न समझे फिर भी निभाते रहे
एक थी मंजिले और एक थे रस्ते
आज है वो हमसफ़र क्यों अनजाने
सांसो को भी छु लेने कि कभी नजदिकिया
और कभी नाम भी न ले पाने कि दुरिया
कभी सुरमई शाम की है ठंडी हवा
है कभी तपते सूरज की गर्मिया
रिश्ते आखिर है कैसी ऋतुये
बिना वक़्त के यह बदल जाये
आँचल के पीछे से है झाकते
छोटे होने की जिद में है लड़ते
कभी यु ही मुह फुलाये बैठे रहे
और कभी आके खुदसे गुदगुदाए
जिनके बिना कभी जीना था मुश्किल
कही दूर ही छुट जाये हो जाये ओझिल
रिश्ते आखिर है ये कैसे है बूँदें
बारिश हो फिर भी रह जाये सूखे
2 comments:
Wah OP saab, rishto ki nai paribhashao ke sath utare hai aap is baar maidan mein :-)
Lage raho OP bhai ;-)
Too good and very true...I think everybody must be feeling the same...bus tumhari tarah karamaati shabd nahi hai... :)
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