ढलती रही मेरी उमर धुप की तरह
आई नज़र ज़िंदगी एक दिन शाम की तरह
जब देखा पीछे तो घर नही था
कोई रास्ता कोई नुक्कड़ नही था
बस हाथ उठाया जो किसी के तरफ़
लौट आया ख़ुद ही कटी पतंग की तरह
मेरे बचपन मेरे जवानी की
जैसे कोई अधूरी कहानी सी
कितने बाते याद आने लगी
सब यू ही आखें गीली करनी लगी
छुने की कोशिश जो की एक अहसास को
उड़ गया वह किसी खुशबू की तरह
आज मेरी तरह यहा और भी है
सबके कल थे अलग आज एकसे है
हर किसी ने कुछ पाया था कभी
आज सब है खाली मुठी की तरह
ढलती रही मेरी उमर धुप की तरह
आई नज़र ज़िंदगी एक दिन शाम की तरह
1 comment:
OP bhai .. kamaal kar diya aapne to .. It is really ur one of the best poem.Aapke khayalo mein kya gahrai hai..wah bhai. Vaise v day ke pahale budhape ke khayal kyo aa rahe hai bhai??
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