किसी की जिद ने
किसी की साजिश ने
दीवार खड़ी कर दी
सुबह तो थे भाई भाई
ये कैसी आयी काली परछाई
कि शाम ने सरहदे तय कर दी
हम और तुम दोनों क्यूँ भूले
क्या दिल्ली और क्या लाहौर
सारी गलियां तो अपनी थी
अपने बटवारे पर न काबू
अपनों का ही बहाया लहू
आखिर ऐसी भी क्या दुश्मनी
गोद होती जिसमे सुनी
सपने होते जिसमे कुर्बान
ऐसी भी क्या जंग लड़नी
हम और तुम दोनों क्यूँ भूले
क्या दिल्ली और क्या लाहौर
रोती आखें तो अपनी थी
लम्बा अरसा बीत गया
कुछ तेरा कुछ मेरा खो गया
फिर भी नफरत की रात न बीती
आ दोनों मिल कर कोशिश करे
कल की सुबह हो उजयारी
फिर से न दोहराएँ वहीँ कहानी
हम और तुम दोनों क्यूँ भूले
क्या दिल्ली और क्या लाहौर
हँसता बचपन तो अपना हैं
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